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फ़िल्म समीक्षा : 'आई एम सेवेन्टीन' के माफ़र्त पर्दे पर उतरी निर्भया के दर्द की अनसुनी कहानी 

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डॉ. तबस्सुम जहां, दिल्ली:

निर्भया यह शब्द एक समय देश से लेकर दुनिया में मर्म को भेदने का सबब बना था। एक मासूम सी लड़की के साथ मर्दवादी अहं ने जैसा हिंसक बर्ताव किया, उसने झकझोर कर रख दिया था। दरअसल बीते कुछ बरसों में हमारे समाज में अनेक वीभत्स और जघन्य घटनाएं हुईं हैं। जिन्होंने न केवल समाज को भीतर तक झिंझोड़ कर रख दिया बल्कि मानवता को शर्मसार भी किया है। इसी घटनाओं में निर्भया कांड भी शामिल है। हालांकि बाद में दोषी पकड़े गए और एक लंबी कानूनी प्रक्रिया के तहत सभी को फांसी की सज़ा भी हुई। विसंगति यह है कि उनमें से एक अपराधी जघन्य अपराध करके भी सज़ा से बच गया। क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार वह बालिग़ नहीं था। उस समय यह प्रकरण मीडिया में चहुं ओर छाया रहा। टीवी पर अपराधी की आयु को लेकर जमकर डिबेट हुए। कुछ लोगों ने इसके पक्ष-विपक्ष में अपने तर्क रखे। पर आख़िर में अंतिम दोषी समाज व कानून को धत्ता बनाते हुए रिहा हो गया क्योंकि वे बालिग़ नहीं था। कहा जाता है कि समाज मे होने वाली हरेक अच्छी व बुरी घटनाओं का प्रभाव लोगों पर जल्द पड़ता है। यही कारण है कि उसके बाद समाज मे ऐसे अपराध बड़ी तेजी से बढ़ने लगे जिसके अपराधी 18 वर्ष से कम आयु के थे।  निर्भया कांड ने नवयुवकों को दिग्भ्रमित करने के मार्ग खोल दिए क्योंकि वे जानते हैं कि भारतीय संविधान के तहत उनको सज़ा नहीं हो सकती क्योंकि वे बालिग़ नहीं हैं। अतः वे बड़े से बड़ा अपराध करके भी बच सकते हैं। कुछ इसी ज्वलंत विषय पर डायरेक्टर विनीत शर्मा की लघुफ़िल्म 'आई एम सेवेन्टीन' आधारित है।

 

विनीत शर्मा के निर्देशन का कमाल

बॉलीवुड फ़िल्म एक्टर और डायरेक्टर विनीत शर्मा  बॉलीवुड की एक महान हस्ती हैं। अनेक सुपर हिट फिल्मों में काम करने के अतिरिक्त उन्होंने अनेक फिल्मों का निर्माण भी किया है।  'आई एम सेवेन्टीन' युवाओं पर केंद्रित एक उनकी संवेदनशील फ़िल्म है। कथावस्तु की दृष्टि से यह सामाजिक मुद्दे पर आधारित है। स्वयं विनीत शर्मा इस फ़िल्म के बनने के संदर्भ में बताते हैं कि पिछले दिनों निर्भया कांड अथवा उस जैसी अनेक घटनाओं ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। दोषी पकड़े गए और अथक प्रयासों के बाद उन्हें सज़ा भी हुई। परन्तु इस प्रकरण में एक दोषी को कम उम्र का हवाला देखर छोड़ दिया गया। यह उस पिता पर एक आघात था, जिसकी बेटी असमय ही काल मे गाल में झोंक दी गयी। वे पिता शायद चैन से न बैठे हों। विनीत शर्मा ने उस पिता की पीड़ा को न केवल समझा अपितु उसे आत्मसात भी किया। वे हर हाल में अंतिम बचे दोषी को सज़ा दिलाना चाहते थे अतः एक आक्रोश था जो उनके अंदर धधक रहा था इसीलिए उन्होंने इस फ़िल्म की पटकथा लिखी। इस लघु फ़िल्म के द्वारा वे दर्शकों के सामने इस बार पुनः एक पिता को न्याय दिलाना चाहते थे। और अंतिम बचे दोषी के अपराध की तीव्रता को सामने लाना चाहते थे। वे बताना चाहते थे कि केवल कुछ महीने कम होने से अपराधी को क्षमा नही किया जा सकता। विनीत शर्मा अपने इस मकसद में भरपूर सफल भी हुए है।

 

सोशल मीडिया का गलत प्रयोग खतरनाक

महानगरीय पृष्ठभूमि में नवयुवकों में बढ़ते क्राइम व सोशल मीडिया के गलत प्रयोग पर आधारित यह फ़िल्म शहर की भागमभाग से आंरभ होती है। आंरभ में कार में रखा मोबाइल बजता है जिसे उठाकर एक नवयुवक कोई महत्वपूर्ण डील पक्की करता है। वह उस बिजनेसमैन के घर जाता है और डील को लेकर खुलकर बात करता है। असल मे यह डील बिजनेसमैन को खुश करने के लिए लड़कियां उपलब्ध कराने के संदर्भ में होती। इसी बीच शराब पीते हुए दोनो में नवयुवक के कार्यशैली को लेकर चर्चा होती है। बात खत्म होते ही बिजनेसमैन नवयुवक पर पिस्तौल तान देता है और अंत मे पूरी फिल्म का परिदृश्य ही बदल जाता है। अंत मे वह घटता है जिसकी कल्पना किसी को नहीं होती। अंत में दिखाए गए दृश्य न केवल दर्शकों को झकझोर देते हैं बल्कि अनेक महत्वपूर्ण प्रशन से रूबरू भी कराते हैं।
22 मिनट कुछ सेकेंड की यह लघुफ़िल्म अपनी रोचकता और सुगठता से दर्शकों को अंत तक बांधे रखती है। अपने इस छोटे से अन्तराल में यूँ तो उक्त लघुफ़िल्म का उद्देश्य नाबालिग अपराधी के अपराध की तीव्रता समाज के सामने लाना तथा उसको सज़ा देना है। पर उसके अलावा भी यह फ़िल्म समाज से जुड़ी अनेक समस्याओं से रूबरू कराती हैं। यह  सभी समस्याएं समाज के लिए एक अभिशाप हैं।

 

समाज से जुड़ी अनेक समस्याओं से रूबरू कराती है फ़िल्म


-आज के युवा वर्ग का गलत दिशा में भटकाव।।    
-फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया का गलत उपयोग। खासकर इस पर सच्चे मित्र की तलाशना करना जैसी बेवकूफी।।       -कम उम्र की युवतियों को प्रेम जाल में फंसा कर उनका मनमाना शोषण
- वेश्यावृत्ति ख़ासकर पढ़ी लिखी युवतियों द्वारा चाहे वे दबाव में हो या किसी अन्य कारण से।
- कम उम्र के लड़कों पर समाज मे हो रही घटनाओं का अच्छा या बुरा प्रभाव पढ़ना। निर्भया कांड में नाबालिग लड़का सज़ा से बच गया अतः उसकी उम्र के लड़को का यह सोचा जाना कि कोई भी अपराध करके वे भी कानून से बच सकते हैं क्योंकि वे भी नाबालिग हैं।

 

आत्महत्या करने पर विवश लोग

फ़िल्म एक ऐसे व्यक्ति पर केंद्रित है। जिसकी इकलौती बेटी का शारिरिक शोषण करके उसे आत्महत्या करने पर विवश किया जाता है। समय उस पिता को उसकी बेटी के हत्यारे के सामने ला खड़ा करता है। वह नाटकीय ढंग से अपना जुर्म कुबूल भी करता है। पिता चाहता है कि उसकी बेटी के हत्यारे को तत्काल सज़ा मिले। विसंगति यह है कि पिता एक पुलिस ऑफिसर भी है जिनके हाथ कानून ने जकड़ रखें है। यहां एक ही व्यक्ति पिता व पुलिस ऑफिसर दोनों उत्तरदायित्व के उहापोह में जकड़ा हुआ है। दोहरे व्यक्तित्व की मनःस्थिति को यहाँ भलीप्रकार से समझा जा सकता है।फ़िल्म के तकनीकी पक्ष पर बात करें तो इसके संवाद अति छोटे-छोटे व बेहद गठे हुए हैं। फ़िल्म में जहां संवाद नहीं होते वहां चरित्रों के हाव-भाव संवाद करते हैं। डायरेक्टर विनीत शर्मा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहानी में चरित्र ही नहीं अपितु दृश्य में मौजूद हरेक वस्तु संवाद करती है। जैसे फ़िल्म के आंरभ तो दिन से होता है पर दृश्य बदलते ही ढलता हुआ सूरज कैमरे के फोकस से दूर धीरे-धीरे दूर होता दिखाया है। सूरज का इस प्रकार दूर होना महानगरों की कालिमा को प्रकट करता है जिसके अंधेरे में जाने कितने ही अपराध जन्म लेते हैं। फ़िल्म के आरंभ में बिजनेसमैन के जिस कमरे में नवयुवक जाता है वहाँ की दीवार पर एक ऐसी लड़की का चित्र है जो ख़ौफ़ज़दा है और उसका मुंह भी किसी ने हाथ से बंद किया है। चित्र कमरे में मौजूद व्यक्तियों को देखता-सा प्रतीत होता है। यह सिम्बल है उन लड़कियों का जिनका शोषण नवयुवक कर रहा है। वे भयभीत हैं सब कुछ देख सुन रही हैं। वे जानती हैं कि उनके साथ गलत हो रहा है। वे सब चीत्कार करना चाहती हैं लेकिन ब्लैकमेल करने की धमकी देकर उनका मुंह बंद किया गया है। लड़का जब लड़कियों को फंसाने की तरकीब बिजनेसमैन को बताता है तो उसका संवाद -"आपके पास दो घंटे का टाइम है वीडियो रिकॉर्डिंग मोड में। और मैं..." इतना कहकर चिकन लैग नोंचने लगता है। इस दृश्य से दर्शक अंदाज़ा लगा लेते हैं कि वह लड़की को भी इसी प्रकार नोंचता-खसोटता होगा। इस दृश्य में चिकन का सिम्बल रूप में बहुत अच्छा प्रयोग हुआ है। जब नवयुवक कहता है कि 'आई एम जस्ट सेवेन्टीन' तब एक लड़की की पेंटिंग उसे एक आंख से देखती है तथा उसका प्रतिबिंब बिजनेसमैन को भी देखता है। उस लड़की की आंखों में सामने वाले के लिए घृणा है साथ ही असंख्य प्रशन भी।

 

फ़िल्म में केवल 4 मुख्य पात्र

फ़िल्म में केवल 4 मुख्य पात्र हैं बाक़ी सहायक पात्र। बिजनेस बने विनीत शर्मा फ़िल्म में तिहरे क़िरदार के रूप दृष्टिगत होते हैं। विशेष बात यह है कि एक ही व्यक्ति का छोटे से अंतराल में तीन चरित्र की भूमिका अदा करना काबिले तारीफ़ है। बिजनेसमैन के किरदार में जहाँ वे दर्शकों की घृणा पाते हैं वहीं पिता रूप में उनका किरदार संवेदना से भरपूर दर्शकों की आंखे भिगो जाता है। अंत मे पुलिस अफसर के चरित के रूप में वह दर्शको की तालियां बटोर ले जाते हैं। विनीत शर्मा ने इन तीनों किरदारों में सामंजस्य बनाया हुआ है। आंरभ में उनके चेहरे के भाव से उनके किरदार का पता ही नही चलता। दर्शको को सबसे अंत मे पता चलता है कि वह वास्तव में क्या हैं। मोंटी का चरित्र निभाने वाले सिद्धार्थ डांडा की एक्टिंग बहुत ही बेजोड़ है। इनकी बॉडी लैंग्वेज और संवाद में ग़ज़ब का तारतम्य देखा जा सकता है। नकारात्मक रोल के चलते यह पूरी फ़िल्म में दर्शकों की नफ़रत व घृणा का पात्र बनते हैं। अंत मे अपनी माँ को सामने देख कर एक पुत्र की मनःस्थिति को इन्होंने बखूबी निभाया है। बार-बार उनका गर्वोक्ति से बोला गया संवाद -"आई एम जस्ट सेवेन्टीन" दृश्य में जान डाल देता है। इस पात्र के द्वारा ऐसे नवयुवकों की छवि प्रस्तुत की गयी है जिन पर समाज मे हो रही घटनाओं का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जल्द से जल्द अमीर बनने की ललक उन्हें बड़े से बड़ा अपराध करने को प्रेरित करती है। कहा जा सकता है कि सिद्धार्थ डांडा ने अपने चरित्र के साथ भरपूर न्याय किया है। मोंटी की माँ का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री नीतू पांडे की उपस्थिति दृश्य को बेहद मार्मिक बना देती है। एक माँ के सामने उसका बेटा दोषी सिद्ध होता है। एक माँ की ममता और स्त्री स्वाभिमान के बीच झूलते पात्र की संवेदना को नीतू पांडे ने अपने अभिनय कौशल से बखूबी निभाया है। अंत मे लिया गया एक माँ का फैसला दृश्य को बेहद हृदय विदारक बना देता है। मोंटी की बहन का किरदार निभाने वाली 'सिमरन नाटेकर' ने भी छोटे से रोल में अपनी छाप छोड़ दी है। कुल मिलाकर 'आई एम सेवेन्टीन' लघुफ़िल्म समाज के महत्वपूर्ण विषयों व समस्याओं से साक्षात्कार कराती बहुत ही प्रासंगिक फ़िल्म है। 

 

(लेखिका कहानीकार, आलोचक और फ़िल्म समीक्षक हैं। इनकी कहानियां और समीक्षात्मक लेख देश -विदेश की पत्र -पत्रिकाओं में निरंतर छपते रहते हैं। संप्रति  अंतर्राष्ट्रीय मासिक पत्रिका "साहित्य मेघ" में सह संपादक ।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।